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होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑ꣳशमि॒तार॑ꣳ श॒तक्र॑तुं धि॒यो जो॒ष्टार॑मिन्द्रि॒यम्। मध्वा॑ सम॒ञ्जन् प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॒ स्वदा॑ति य॒ज्ञं मधु॑ना घृ॒तेन॒ वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥१० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। श॒मि॒तार॑म्। श॒तक्र॑तु॒मिति॑ श॒तऽक्र॑तुम्। धि॒यः। जो॒ष्टार॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। मध्वा॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभि॒रिति॑ सु॒ऽगेभिः॑। स्वदा॑ति। य॒ज्ञम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥१० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) दान देने हारे जन ! जैसे (होता) यज्ञकर्त्ता पुरुष (वनस्पतिम्) किरणों के स्वामी सूर्य के तुल्य (शमितारम्) यजमान (शतक्रतुम्) अनेक प्रकार की बुद्धि से युक्त (धियः) बुद्धि वा कर्म को (जोष्टारम्) प्रसन्न वा सेवन करते हुए पुरुष का (यक्षत्) सङ्ग करे (मध्वा) मधुर विज्ञान से (सुगेभिः) सुखपूर्वक गमन करने के आधार (पथिभिः) मार्गों करके (आज्यस्य) जानने योग्य संसार के (इन्द्रियम्) धन को (समञ्जन्) सम्यक् प्रकट करता हुआ (स्वदाति) स्वाद लेवे और (मधुना) मधुर (घृतेन) घी वा जल से (यज्ञम्) सङ्गति के योग्य व्यवहार को (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे (यज) तुम भी प्राप्त होओ ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के तुल्य विद्या, बुद्धि, धर्म और ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले धर्मयुक्त मार्गों से चलते हुए सुखों को भोगें, वे औरों को भी सुख देनेवाले होते हैं ॥१० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) (यक्षत्) (वनस्पतिम्) वनानां किरणानां स्वामिनं सूर्यम् (शमितारम्) यजमानम् (शतक्रतुम्) असंख्यातप्रज्ञम् (धियः) प्रज्ञायाः कर्मणो वा (जोष्टारम्) प्रीतं सेवमानम् (इन्द्रियम्) धनम् (मध्वा) मधुरेण विज्ञानेन (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटयन् (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैः (स्वदाति) आस्वदेत। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (यज्ञम्) सङ्गतं व्यवहारम् (मधुना) मधुरेण (घृतेन) आज्येनोदकेन वा (वेतु) व्याप्नोतु (आज्यस्य) विज्ञेयस्य संसारस्य (होतः) दातर्जन (यज) प्राप्नुहि ॥१० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता वनस्पतिमिव शमितारं शतक्रतुं धियो जोष्टारं यक्षन्मध्वा सुगेभिः पथिभी राज्यस्येन्द्रियं समञ्जन् स्वदाति मधुना घृतेन यक्षं वेतु तथा यज ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवद्विद्याप्रज्ञाधर्मैश्वर्यप्रापका धर्म्ममार्गैर्गच्छन्तः सुखानि भुञ्जीरंस्तेऽन्येषामपि सुखप्रदा भवन्ति ॥१० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे असून विद्या, बुद्धी, धर्म व ऐश्वर्य प्राप्त करणाऱ्या धर्म मार्गाने चालतात ती स्वतः सुख भोगून इतरांनाही सुख देतात.